नई दिल्ली: दिल्ली की जहरीली हवा को धोने की कोशिश मंगलवार को नाकाम रही. क्लाउड सीडिंग से एक बूंद भी नहीं गिरी. लोग उम्मीद लगाए बैठे थे कि फिल्म 'लगान' की तरह बारिश की आस थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. हवा पहले जैसी भारी बनी रही.
दिल्ली में क्लाउड सीडिंग का विचार नया नहीं है. कई सरकारें इसे आजमाती रही हैं. सर्दियों में प्रदूषण चरम पर होता है, कम हवा और ठंडक धूल को फंसाती है. कृत्रिम बारिश प्रदूषकों को धो सकती है. मगर यह सिर्फ थोड़े समय की राहत देती है.
क्या है आगे की प्लानिंग?
रेखा गुप्ता की अगुवाई में IIT कानपुर से सरकार ने हाथ मिलाया. इसके लिए अक्टूबर से दिसंबर तक पांच परीक्षण प्लान किए. जिसकी लागत तीन करोड़ रुपये से ज्यादा का रखा गया. मंगलवार को IIT का विमान आया, 400 किलोमीटर उड़कर दिल्ली पहुंचा. दिल्ली के बुराड़ी, मयूर विहार और करोल बाग पर सिल्वर आयोडाइड छिड़का गया. तीन घंटे बाद दोबारा यही किया गया, लेकिन इसका भी कोई असर नहीं दिखा. सिल्वर आयोडाइड बर्फ जैसा होता है जिसे बीज माना जा सकता है. इसके इर्द-गिर्द पानी की बूंदें जमती हैं, बूंदें भारी हों तो बारिश होती है, लेकिन दिल्ली में कुछ नहीं हुआ.
क्लाउड सीडिंग मौसम पर निर्भर करती है. सर्दियों में दिल्ली शुष्क रहती है, हवा की गति कम होती है. वर्षा वाले बादल नहीं मिलते. IMD ने हल्की बूंदाबांदी की भविष्यवाणी की थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. IIT की रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि बादल तो थे, मगर नमी सिर्फ 10-15 प्रतिशत थी हालांकि जरूरत 50-60 प्रतिशत की है. नमी कम थी, इसलिए आदर्श स्थिति नहीं बनी. विशेषज्ञों ने बताया, सर्दियों में पश्चिमी विक्षोभ जरूरी है लेकिन यहां उपयुक्त बादल नहीं थे. परीक्षण से पहले इन बातों पर विचार हुआ या नहीं, पता नहीं लेकिन इस ट्रायल में लाखों रुपये बर्बाद हो गए. भारत 1950 से क्लाउड सीडिंग करने की कोशिश कर रहा है. 1970 में सूखे इलाकों के लिए इस्तेमाल हुआ. हालांकि क्लाउड सीडिंग प्रदूषण का स्थायी हल नहीं है.