Pakistan-Afghanistan relations: कतर की राजधानी दोहा में आयोजित पाकिस्तान-अफगानिस्तान शांति वार्ता में इस बार बाजी तालिबान के हाथ लगी. पाकिस्तान जहां युद्धविराम समझौते के जरिए अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता था, वहीं तालिबान ने न केवल अपनी शर्तें मनवाईं बल्कि पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. इस पूरी प्रक्रिया में तुर्की की मौजूदगी के बावजूद पाकिस्तान की दाल नहीं गली.
पाकिस्तान की रणनीति हुई नाकाम
पाकिस्तान लंबे समय से तालिबान को एक गैर-लोकतांत्रिक शासन कहकर उसकी आलोचना करता रहा है. लेकिन दोहा में जब कतर ने मध्यस्थता की जिम्मेदारी ली, तो इस्लामाबाद को भी बातचीत की मेज पर आना पड़ा. पाकिस्तान की मंशा युद्धविराम से ज्यादा डूरंड लाइन और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के आतंकियों पर चर्चा करने की थी. मगर बैठक में इन दोनों मुद्दों पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई.
तालिबान ने अपनी तीन प्रमुख मांगें रखीं पहली, व्यापारिक मार्गों को दोबारा खोलना; दूसरी, पाकिस्तानी हमलों पर रोक; और तीसरी, सीमा क्षेत्रों में अफगान नियंत्रण को मान्यता देना. दोहा वार्ता के अंत में पाकिस्तान ने सभी तीनों मांगों पर सहमति जता दी, जबकि उसके प्रमुख मुद्दे चर्चा में भी नहीं आए.
अफगानिस्तान की कूटनीतिक जीत
तालिबान सरकार ने 2021 में सत्ता संभालने के बाद से अंतरराष्ट्रीय मान्यता पाने की कोशिशें जारी रखी हैं. दोहा में हुई यह बैठक उस दिशा में एक अहम कदम मानी जा रही है. तालिबान ने न सिर्फ पाकिस्तान को बैकफुट पर धकेला बल्कि यह संदेश भी दिया कि अब वह अफगानिस्तान की सीमा और नीतियों पर किसी बाहरी हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेगा.
कतर के हस्तक्षेप से दोनों देशों के बीच पांच दिन तक चली झड़पों के बाद सीजफायर लागू हुआ. इसके बाद हुए समझौते पर पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने बयान देते हुए कहा कि “अभी बातचीत जारी है, इसलिए शांति समझौते का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया जाएगा.” यह पाकिस्तान की असहज स्थिति को दर्शाता है, क्योंकि काबुल ने इस पूरे प्रकरण में स्पष्ट बढ़त हासिल कर ली.
डूरंड लाइन और टीटीपी का विवाद जारी
डूरंड लाइन, जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा मानी जाती है, दरअसल 1893 की ब्रिटिश समझौता रेखा है. अफगानिस्तान इसे कभी मान्यता नहीं देता. तालिबान का दावा है कि यह एक “नकली लाइन” है और सीमा का निर्धारण नहीं कर सकती. वहीं पाकिस्तान इसे अपनी वैध अंतरराष्ट्रीय सीमा बताता है.
दूसरी ओर टीटीपी (Tehrik-e-Taliban Pakistan) के आतंकियों का मुद्दा भी पाकिस्तान के लिए सिरदर्द बना हुआ है. इस संगठन के करीब 8 हजार लड़ाके अफगानिस्तान में मौजूद बताए जाते हैं. पाकिस्तान का आरोप है कि तालिबान इन्हें शह देता है, जबकि काबुल इन आरोपों को निराधार बताता है.
दोहा बैठक ने एक बात साफ कर दी कि अफगानिस्तान अब किसी भी देश, खासकर पाकिस्तान, की शर्तों पर नहीं खेलेगा. तालिबान की इस कूटनीतिक जीत ने दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में नए समीकरण बना दिए हैं.