Corona Pandemic: कोरोना महामारी के दौरान मास्क हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गया था. इसे हमने अपनी सुरक्षा का सबसे मजबूत कवच माना. लेकिन अब वही मास्क, जो कभी वायरस से हमारी रक्षा करता था, एक ‘केमिकल टाइम बम’ बनकर हमारी सेहत और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है. हाल ही में हुई एक रिसर्च ने इस खतरे की गंभीरता को उजागर किया है.
चौंकाने वाली रिसर्च के नतीजे
कोवेंट्री यूनिवर्सिटी की वैज्ञानिक अन्ना बोगुश और उनके सहयोगी इवान कूर्चेव ने इस विषय पर गहन अध्ययन किया. उन्होंने विभिन्न प्रकार के डिस्पोजेबल मास्क को 150 मिलीलीटर पानी में 24 घंटे तक डुबोकर रखा और फिर उस पानी को फिल्टर किया.
नतीजे हैरान करने वाले थे. हर मास्क से माइक्रोप्लास्टिक कण निकले, जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं. खासतौर पर FFP2 और FFP3 मास्क, जिन्हें महामारी के दौरान सबसे सुरक्षित माना गया था, उनसे अन्य मास्कों की तुलना में 4 से 6 गुना अधिक माइक्रोप्लास्टिक निकला.
माइक्रोप्लास्टिक का खतरा
ये मास्क ज्यादातर पॉलीप्रोपाइलीन जैसे प्लास्टिक से बने होते हैं. समस्या यह है कि इनका रीसाइक्लिंग सिस्टम प्रभावी नहीं था. नतीजतन, अधिकांश मास्क लैंडफिल, सड़कों, नदियों, समुद्र तटों और ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे के रूप में बिखर गए. ये मास्क अब धीरे-धीरे टूटकर माइक्रोप्लास्टिक और जहरीले केमिकल्स छोड़ रहे हैं. इन कणों का आकार 10 से 2000 माइक्रोन तक होता है, लेकिन 100 माइक्रोन से छोटे कण सबसे ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि ये आसानी से पर्यावरण और मानव शरीर में प्रवेश कर सकते हैं.
हार्मोनल सिस्टम का दुश्मन
यह एक एंडोक्राइन डिसरप्टर है, जो शरीर के हार्मोनल सिस्टम को प्रभावित करता है और इस्ट्रोजन जैसे प्रभाव डाल सकता है. यह इंसानों और जानवरों दोनों के लिए नुकसानदायक है. अनुमान है कि महामारी के दौरान इस्तेमाल हुए मास्कों से 128 से 214 किलो बिसफेनॉल बी पर्यावरण में फैल चुका है.
क्या है समाधान?
इस संकट से निपटने के लिए प्रभावी रीसाइक्लिंग सिस्टम और पर्यावरण-अनुकूल मास्क विकल्पों की जरूरत है. सरकारों, वैज्ञानिकों और उद्योगों को मिलकर ऐसे उपाय करने होंगे, जो मास्क के सुरक्षात्मक लाभ को बनाए रखें, लेकिन पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान न पहुंचाएं.