कृष्ण जन्मभूमि–ईदगाह विवाद! ‘कॉपीकैट’ मुकदमों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई को तैयार, हिंदू पक्षों में प्रतिनिधित्व को लेकर टकराव

मथुरा के बहुचर्चित श्रीकृष्ण जन्मभूमि–शाही ईदगाह मस्जिद विवाद में हिंदू पक्षों के बीच प्रतिनिधित्व की लड़ाई और तेज हो गई है. विवाद से जुड़े एक हिंदू पक्ष ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिसमें दूसरे हिंदू पक्ष को “सभी भक्तों का प्रतिनिधि” मानने की अनुमति दी गई थी. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर 1 दिसंबर को विस्तृत सुनवाई करने का निर्णय लिया है.

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Krishna Janmabhoomi dispute: मथुरा के बहुचर्चित श्रीकृष्ण जन्मभूमि–शाही ईदगाह मस्जिद विवाद में हिंदू पक्षों के बीच प्रतिनिधित्व की लड़ाई और तेज हो गई है. विवाद से जुड़े एक हिंदू पक्ष ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिसमें दूसरे हिंदू पक्ष को “सभी भक्तों का प्रतिनिधि” मानने की अनुमति दी गई थी. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर 1 दिसंबर को विस्तृत सुनवाई करने का निर्णय लिया है.

सोमवार (24 नवंबर, 2025) को जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस आलोक अराधे की खंडपीठ ने कहा कि मामला जटिल है और इसमें “विस्तृत सुनवाई आवश्यक” है. यह मामला हिंदू पक्षों की आंतरिक आपत्तियों और मुकदमों की प्राथमिकता के प्रश्न को लेकर और अधिक संवेदनशील हो गया है.

क्या है विवाद का मूल?

विवाद मथुरा स्थित शाही ईदगाह मस्जिद परिसर से संबंधित है. हिंदू पक्ष का दावा है कि मुगल शासक औरंगज़ेब ने यहां मौजूद एक प्राचीन मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण कराया था, जो भगवान कृष्ण का जन्मस्थान माना जाता है. इसी ऐतिहासिक दावे से जुड़े 20 से अधिक दीवानी मुकदमे पिछले वर्षों में दायर किए गए, जिन्हें हाईकोर्ट ने अपने पास स्थानांतरित कर सुनवाई प्रक्रिया तेज करने का निर्णय लिया. हिंदू पक्ष की मांग है कि जन्मभूमि से लगे क्षेत्र को मंदिर परिसर घोषित किया जाए और ईदगाह को हटाया जाए.

हाईकोर्ट का वह आदेश जिस पर विवाद खड़ा हुआ

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जुलाई 2025 में केस नंबर 17 के वादियों को “भगवान कृष्ण के सभी भक्तों का प्रतिनिधि” मानने का अधिकार दे दिया था. यह केस भगवान श्रीकृष्ण विराजमान के नाम पर नेक्स्ट फ्रेंड के जरिए दायर किया गया था.

हालांकि, हाई कोर्ट का यह कदम दूसरे हिंदू पक्ष- केस नंबर 1 के वादी को स्वीकार्य नहीं है. उनका आरोप है कि केस नंबर 17 केवल पहले दायर किए गए मामलों की नकल है, और फिर भी हाई कोर्ट ने इसे “मुख्य मामले” का दर्जा दिया है.

क्या कह रहा है ‘पहला’ हिंदू पक्ष?

केस नंबर 1 की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि उनके मुवक्किलों ने सबसे पहले मूल वाद दायर किया था. इसलिए, दीवानी मामलों की परंपरा के तहत वही ‘प्रतिनिधि पक्ष’ माने जाने चाहिए.

उन्होंने अदालत में कहा, “बाकी सभी सूट कॉपीकैट हैं. अगर कोई प्रतिनिधि सूट होना है, तो वही होना चाहिए जो पहले दायर किया गया. हाईकोर्ट ने बिना मांग किए ही दूसरे सूट को भक्तों का प्रतिनिधि मान लिया, जो सही प्रक्रिया नहीं है.” दीवान के अनुसार, केस नंबर 17 के वादी केवल मुस्लिम पक्ष को ‘प्रतिनिधि प्रतिवादी’ मानने की अनुमति चाहते थे, लेकिन हाईकोर्ट उससे कहीं आगे बढ़कर उन्हें पूरे हिंदू समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता दे बैठा.

हाईकोर्ट में कितने मुकदमे और क्या स्थिति?

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार—

श्रीकृष्ण जन्मभूमि–ईदगाह विवाद से जुड़े 18 केस हाईकोर्ट ने अपने पास ट्रांसफर किए हैं.

इनमें 15 केस को एक साथ सुना जा रहा है, जबकि बाकी तीन अलग सूचीबद्ध किए गए हैं.

केस नंबर 1 और केस नंबर 17 दोनों ही नेक्स्ट फ्रेंड के रूप में देवता के नाम पर दायर वाद हैं, लेकिन पक्षकार अलग-अलग हैं.

केस नंबर 1 के वादी—रंजना अग्निहोत्री, प्रवेश कुमार, राजेश मणि त्रिपाठी, करुणेश कुमार शुक्ला, शिवाजी सिंह और त्रिपुरापुरी तिवारी हैं.

वहीं केस नंबर 17 में—सुरेंद्र कुमार गुप्ता, महावीर शर्मा और प्रदीप कुमार श्रीवास्तव वादी हैं.

दोनों ही पक्ष खुद को जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का अग्रणी मानते हैं.

पहले से लंबित है एक और बड़ी याचिका

सुप्रीम कोर्ट पहले ही मस्जिद समिति की उस याचिका पर विचार कर रहा है, जिसमें हाईकोर्ट के 26 मई 2023 को दिए गए आदेश को चुनौती दी गई थी. उस आदेश में हाईकोर्ट ने मथुरा के सभी लंबित मामलों को अपने पास बुला लिया था. हिंदू पक्ष चाहता है कि हाईकोर्ट राम जन्मभूमि की तरह मूल सुनवाई करे और सबूतों का एकीकृत परीक्षण किया जाए.

अगली सुनवाई क्यों महत्वपूर्ण?

1 दिसंबर की सुनवाई यह तय कर सकती है कि—

  • जन्मभूमि विवाद में कौन-सा हिंदू पक्ष ‘प्रतिनिधि वादी’ माना जाएगा?
  • कौन-सा केस लीड केस बनेगा?
  • हाईकोर्ट ने जो शक्तियां प्रयोग की थीं, वे न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार थीं या नहीं?

कानूनी विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रतिनिधित्व का प्रश्न आगे के सभी मुकदमों के ढांचे को प्रभावित करेगा और इसलिए सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप को निर्णायक माना जा रहा है.