काकोरी कांड के 100 साल, जिसने हिलाया ब्रिटिश साम्राज्य

2025-08-09T11:55:00+05:30

आजादी की जंग में साहस का प्रतीक

9 अगस्त 1925 का दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. काकोरी कांड में क्रांतिकारियों ने लखनऊ-सहारनपुर पैसेंजर ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर अंग्रेजों को झकझोर दिया. यह सिर्फ लूट नहीं थी, बल्कि आजादी की जंग में साहस का प्रतीक थी.

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चंद्रशेखर आजाद की चतुराई

काकोरी कांड के बाद चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकते हुए झांसी पहुंचे. वहां उन्होंने मास्टर रुद्र नारायण के घर शरण ली और बुंदेलखंड मोटर्स वर्क्स में मैकेनिक बनकर डेढ़ साल छिपे रहे. अंग्रेजी खुफिया एजेंसियां उन्हें पकड़ने में नाकाम रहीं.

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अंग्रेज जज की डर भरी विदाई

काकोरी कांड का मुकदमा 18 महीने तक चला. फैसला सुनाने वाले जज ए. हैमिल्टन को क्रांतिकारियों के समर्थकों का डर सताने लगा. फैसले के तुरंत बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें झांसी भेजा और फिर गुप्त रूप से लंदन रवाना कर दिया. हैमिल्टन ने फिर कभी भारत की धरती पर कदम नहीं रखा.

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4 हजार की लूट, 10 लाख का खर्च

क्रांतिकारियों ने सिर्फ 4553 रुपये लूटे, लेकिन अंग्रेजों ने इस मामले में 10 लाख रुपये खर्च किए. स्कॉटलैंड यार्ड से विशेष सीआईडी बुलाई गई. सरकारी वकील को रोज 500 रुपये मिलते थे. फिर भी क्रांतिकारियों का हौसला नहीं टूटा.

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क्रांतिकारियों का साहस

काकोरी कांड में अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी जैसे क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया. अंग्रेजों ने पांच हजार का इनाम रखा, जगह-जगह पोस्टर लगाए, लेकिन आजाद को पकड़ना उनके बस की बात नहीं थी.

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काकोरी कांड की गूंज

मन्मथनाथ गुप्ता की किताब और ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि काकोरी कांड ने अंग्रेजों को दिखा दिया कि भारतीय अब सिर्फ नारे नहीं लगाते, बल्कि उनके साम्राज्य पर सीधा प्रहार कर सकते हैं. यह घटना आज भी साहस और एकजुटता की मिसाल है.

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भारतीय को प्रेरित करती

काकोरी कांड के 100 साल बाद भी यह कहानी हर भारतीय को प्रेरित करती है. चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों ने साबित किया कि सच्ची देशभक्ति और साहस के आगे कोई ताकत नहीं टिक सकती.

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